अनिल अनूप
गणतंत्र में संविधान देश के नागरिकों को विशेष मौलिक अधिकार प्रदान करता है, तो उनके साथ कर्त्तव्य और राष्ट्रीय हित भी नत्थी होते हैं। किसी भी पक्ष को अकेला नहीं देखा जा सकता। मौलिक नागरिक अधिकार हैं, तो कानून-व्यवस्था, जन-संतुलन, नैतिकता, मर्यादा और सबसे अहम देश के प्रति एकता, अखंडता की निष्ठा भी उतनी ही संवैधानिक है। यकीनन आंदोलन करना और गणतंत्र-स्वतंत्रता दिवस सरीखे राष्ट्रीय पर्वों को मनाना प्रत्येक भारतीय का अधिकार है, लेकिन सरकार और व्यवस्था के समानांतर आज़ादी का जश्न मनाना ‘अराजकता’ और ‘देश-विरोध’ है। यह टकराव का स्पष्ट संकेत है। यह कानूनहीनता है। इसके मायने हैं कि राजपथ पर जो राष्ट्रीय झांकियां और परेड के आयोजन किए जाएंगे, एक वर्ग उनके समानांतर अपनी खिचड़ी अलग पकाने पर आमादा है। यह निरंकुशता और उच्छृंखलता भी है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने देश के आम नागरिक को यह अधिकार दिया है कि वह राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ अपने घर, छत, संस्थान, वाहन पर फहरा सकता है, लेकिन उसकी भी कुछ शर्तें हैं। यह नहीं हो सकता कि तिरंगा शोभित करना और अपनी निजी परेड निकालना भी किसी का बेलगाम अधिकार है। अंततः देश भर में जन-व्यवस्था, अनुशासन और राष्ट्रीय पर्व की मर्यादा, गरिमा बनाए रखना भी औसत नागरिक का संवैधानिक दायित्व है। दरअसल प्रसंगवश सवाल यह है कि किसान संगठन गणतंत्र दिवस के अवसर पर 25-26 जनवरी को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में समानांतर ‘ट्रैक्टर परेड या रैली’ के आयोजन पर आमादा क्यों हैं? यह तो किसान आंदोलन के अधिकृत मांग-पत्र का हिस्सा ही नहीं है। किसानों की मांग रही है कि कृषि के तीन विवादास्पद कानून रद्द किए जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा दिया जाए। बिजली का प्रस्तावित कानून और पराली, डीजल के दाम आदि अन्य मुद्दे हैं। उन पर भारत सरकार के साथ संवाद के दौर जारी हैं। ‘टै्रक्टर रैली’ में हज़ारों वाहन और किसान शामिल होंगे, तो इसका प्रतीकात्मक अर्थ क्या होगा? परेड दिल्ली की बाहरी रिंग रोड से गुज़रें अथवा किसी अन्य क्षेत्र से जाएं, उसका सीधा प्रभाव जन-व्यवस्था पर पड़ना तय है। जो पक्ष बाधित होगा, उसके भी संवैधानिक मौलिक अधिकार हैं। आंदोलन के कारण जो फैक्ट्रियां, कारखाने बंद हो चुके हैं अथवा उत्पादन बंदी के कगार पर आ चुका है, उनके संवैधानिक अधिकारों को क्यों कुचला जा रहा है? राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के समारोह पर दुनिया की निगाहें भारत पर चिपकी होती हैं, अनेक राजनयिक और अतिविशिष्ट अतिथि भी मौजूद रहते हैं। किसानों के समानांतर आयोजन का प्रभाव क्या भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर नहीं पड़ेगा? समानांतर शक्ति-प्रदर्शन कर किसान क्या सरकार को दबाव में लाना चाहते हैं? उनके 55 दिन पुराने धरने, प्रदर्शन को सरकार ने लगातार अनुमति दी है, तो इसलिए कि यह किसानों का लोकतांत्रिक अधिकार है। यदि अब लक्ष्मण-रेखा और देश की मर्यादा को ही लांघने की कोशिश की जाएगी, तो फलितार्थ कुछ भी हो सकते हैं। जिन जगहों पर किसानों ने धरने दे रखे हैं, वे वहीं गणतंत्र दिवस मनाएं, तिरंगा फहराएं, उसे सलामी दें और अंततः सरकार के साथ बातचीत की रणनीति को कुछ बदलने का प्रयास करें। फिलहाल संपूर्ण राष्ट्र मानसिक और वैचारिक स्तर पर किसानों के समर्थन में है, लेकिन ‘ट्रैक्टर रैली’ के दौरान कुछ अराजक, अनिष्ट हो गया, तो भाव बदलते एक मिनट लगेगा। बल्कि सवालों और शंकाओं की बौछार होने लगेगी। बहरहाल इस संदर्भ में सर्वोच्च अदालत ने सुनवाई टाल दी है और इसे कानून-व्यवस्था का मुद्दा करार दिया है। यह दिल्ली पुलिस का संवैधानिक अधिकार और दायित्व है कि वह तय करे कि 26 जनवरी के मौके पर कौन दिल्ली में प्रवेश करे और कौन न कर सके। लिहाजा पुलिस अधिकारियों और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच संवाद तो हुआ है, लेकिन यह लिखे जाने तक कोई फैसला सामने नहीं आया था। पुलिस और प्रशासन कोई निर्णय लेते हैं, तो उस पर सुनवाई बुधवार 20 जनवरी को शीर्ष अदालत में हो सकती है। उसी दिन सरकार और किसानों के बीच एक और दौर की बातचीत होनी है। फिलहाल संकट देश की संप्रभुता और अखंडता पर है, जिसे नागरिक ही चुनौती दे रहे हैं।